Friday, September 5, 2008

चाँद चकोर

किसी गुलसितां में चहकती थी हरदम ,
दो आंखों में उसकी महकती थी शबनम ,
सभी फूल पाती उसी पर फ़िदा थे ,
जो गूंजे सदा में उसी की सदा थे |

थी लाडो सभी की चहेती चकोर ,
कूदती भागती थी वो चारों ही ओर,
था मासूम दिल ऐसा , भोली सी सूरत ,
थी उसके लिए ये जहाँ खूबसूरत ,

एक दिन जो नज़र आसमां पर पड़ी ,
चाँद के चेहरे से उसकी आँखें लड़ी,
देखती ही रही कुछ भी बोले वो ,
मुस्कुराये मगर राज़ खोले वो ,

फिर कहा उसने ये बड़े दांव से,
चाँद ला दो मुझे आसमां गाँव से ,
सब हँसे चल रे पगली जिद नहीं ऐसे करते ,
कभी तारों को देखा है ज़मीं पे उतरते,

अगर वो ज़मीं पे सकता नहीं ,
तो में क्यों ख़ुद ही उस जाऊं वहीँ ,
यहीं तो दिखे है , उठाओ नज़र ,
हाथों से चूलूं , जो बढाऊं अगर ,

सब ये बोले जो दिखता है होता नहीं,
रेत के ढेर में पानी सोता नहीं ,
इश्क़ में कौन दुनिया में रोता नहीं ,
जो समझता है सपने पिरोता नहीं....


मानी उडी उड़ चली वो चकोर ,
दोनों पंख खोले वो अम्बर की ओर ,
दिन ही को देखा , रातों को जाना,
गर्मी सर्दी, हवा का ठिकाना ,

जो टूटा बुलंदी से दम आखरी,
तो प्यासी वो आके ज़मीं पे गिरी ,
अपने उजडे पंखों को मींचे हुए
पहुँची प्यासी पोखर साँस खींचे हुए ,

देखा जो पानी में था चाँद एक,
आई जान वापस , दिया मौत फ़ेंक ,
गई वो समझ दुनिया दारी को आज ,
लो तुम भी सुनो उस चकोरी का राज़ ,

जो ख्वाइश करो तुम कभी चाँद की ,
अपने घर में पानी का घडा डालना ,
जो सच्ची हो चाहत झुके आसमां,
हमसफ़र दिल तुम ज़रा बड़ा पालना |

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