Wednesday, July 22, 2009
कभी नीम नीम कभी शहद शहद - (भारत गाथा -१ )
आज चार बजे आँख खुल गयी ... कल तीन बजे ही सुबह हो गयी थी और परसों तो एक बजे से ही नींद उछन गयी थी | भारत से अमरीका पहुँचते पहुँचते समय बदल जाता है ..... हाँ वाकई समय बदल जाता है | साथ बदल जाती है इंसान की सोच और रवैया | ये बदलाव मैं खुद में महसूस कर रही हूँ | पता नहीं सही है की गलत | बस है तो है | जैसे कोई लड़की अपने ससुराल से मायके जाती है बहुत खुश होकर ...... फिर महसूस करती है की सब कुछ कितना बदला बदला सा है , क्या ये सचमुच उसका आपना घर है ? या कभी था ?
"ब्यऊली , क्या लायी हो मेरे लिए | अपनी सूँ, तुम्हारी बड़ी याद आती है | आती हो तो साल दो साल बाद | होरी दिवारी क्या देख पाती होगी परदेस में ?" जमुना ताई बड़ी आशा से बैठी थीं देहरी पर |
"नहीं ताई , इस बार इतना काम था आखरी दिन तक, की कुछ ज्यादा सामान खरीद नहीं पायी | चलो यहीं से मैं आपके लिए एक अच्छी सी साडी खरीदवा दूँगी | " बुलबुल ने सोचा की शायद अपनी कमी को पूरी कर पायेगी इसी बहाने |
" हम्बे " ताई की भीषण हम्बे ने हिला कर रख दिया बुलुबुल को | "यहाँ की लेनी होती तो हभाल ले लेती , उहाँ की चाहिए .... मुहेल्ले में दिखाओंगी की अमरीकन बहु लायी है अपनी चचिया सास कूँ |" ताई भी हमारे जेनरेशन एक्स से कोई कम नहीं है - चाहिए तो हर चीज़ पश्चिम की , चाहे वो बुरा करे या भला |
"अरे मैं तो मजाक कर रही थी, लाऊंगी क्यों नहीं | अपनी जमुना ताई के लिए बढ़िया सी लिपस्टिक लाई हूँ | ये लो ताई, खूब होंट रचियो ... " रेव्लोन की अपनी लिए खरीदी हुई लिपस्टिक उनको थमाते हुए बुलबुल ने कहा |
सूखे हुए चेहरे पर सहसा ही मुस्कान फैल गयी | "तेरे आदमी बच्चा खुस रहे बहु, तेरा लाला जिए " आशीर्वाद देते हुए ताई चलने को उठीं |
और मैं ? क्या आदमी बच्चे की ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी है ? मेरी क्या कोई अपनी ख़ुशी नहीं है ?
ओह शीट ! जस्ट फगेट इट ! मैं कितनी सेल्फिश हूँ न ...
"बिना पूछे कोई भी सामान किसी को मत दिया करो " मुड़ते ही सास की चेतावनी का सामना करना पड़ा |
"जी मम्मीजी , अगली बार से आपको पूछ कर दिया करूंगी " बुलबुल को इस बात का भान था की बात सामान की नहीं है , बात अधिकार की है | बड़े बूढे अपनी उपस्थिति का आभास अपनी पूछ से पाते हैं | ठीक है , नो प्रॉब्लम !
अमरीका में रहते रहते शायद मेरी सोच सीमित हो गयी है | मेरा परिवार मेरे लिए सिर्फ पति और बच्चे हैं | इसी कारण तो जब अपने बच्चों के लिए खिलौने खरीद कर लायी तो बाकी बच्चों का ख्याल नहीं आया -फिर जेठानी जी ने कितना हंगामा कर दिया था - "ये बात गलत है बुलबुल, जब कुछ लाओ तो सब बच्चों के लिए लाया करो " गुस्से पर प्यार की परत चढाते हुए दीदी बोलीं |
"जी दीदी, सॉरी मेरी गलती हो गयी | ज़रूर ध्यान रखूँगी " सकपकाते हुए बुलबुल ने उत्तर दिया |
दीदी कितना काम करती हैं | बाप रे ! सुबह से लेकर शाम किचन के अन्दर - किचन जहाँ आग बरसती है - उसी में हर वक़्त लगी रहती हैं | हर 'आदमी' को रोटी गरम गरम चाहिए !!! वर्ना सास चिल्लायेंगी - क्यूँ री ! रोज़ आठ आठ फुलकिया मारती है , आदमी को ताती ताती रोटी सकने को तेरे हाथ टूट ... |
और भैया घर में घुसते ही अपने आने की घोषणा कर देंगे - "अरी, कहाँ मर गयी ? रोटी मिलेगी ...? "
बुलबुल को ये समझ नहीं आती थी की सब 'आदमी' एक साथ क्यूँ नहीं आते ताकि दीदी एक ही बार सबकी रोटी बना दें - ससुर जी अपने समय से आयेंगे , भैया अपने अनुसार , छोटे भैया अपनी ही धुन के मालिक हैं , पर सब लोगों में एक समानता है की कोई भी रोटी हॉट केस से नहीं खायेंगे | सबको रोटी "गरम गरम " चाहिए |
"दीदी, आप सबको कहती क्यों नहीं हैं की या तो एक साथ आयें या फिर हॉट केस में रखी रोटी खाएं | आपको बार बार परेशान नहीं होना होगा | " बुलबुल ने सुझाया |
"का है बुलबुल, दो रोटी सेकनी है, हम पे का कमाई है ? हाँ ? तुम कमाती हो | तुमपे सौ काम है | हमारा तो काम ही रोटी पानी का है | मरद बच्चा को खाना नहीं दे पाए तो हमारी घर में का जगह .... | हम तो इन्ही से है, नहीं क्या ?" पल्लू से अपना पसीना पोंछते हुए दीदी ने कहा |
"नहीं दीदी, हर किसी की अपनी जगह होती है दीदी , और जितना काम आप करती हैं , उतनी तो मैं सौ जन्मों में भी नहीं कर पाऊंगी | रोज़ दिन में दो बार धार काढ के लाना, इतने बड़े घर में झाडू पोंछा, पूरे घर की रसोई- हर बार पचास पचास रोटी बनाना - इतने तरह की सब्जियां , उसपे भैया से इतनी खरी खोटी सुनना, दीदी कुछ गलती तो आपकी भी है , क्यूंकि आप ऐसा होने देती हैं ..." बुलबुल एक लय में कहती जा रही थी |
"गावन में तो ऐसा ही है बुलबुल, तुम शहर में रही हो ना , तोय कछु सल् ना है ...." दीदी बृज भाषा में कहती हैं |
"दीदी, इतना फैला हुआ खेत - कारोबार है , इश्वर के दया से धन की कोई कमी नहीं है , बाऊजी से कहकर एक नौकर क्यूँ नहीं लगवा देते ? ज़रा हाथ बंट जायेगा |" सवाल प्रक्टिकल था |
"घर में बहु बेटी के रहते नौकर को घर के अन्दर कौन आने देगा | बोलो तो? अरे , और मजदूर उतनी और हमें रोटी बनानी होगी | " सहसा दीदी को कुछ याद आया और वो बोलीं - "चलो बुलबुल, बालिका वधू का टेम हो गया , चलो देखते हैं | "
एक चीज़ तो वाकई काबिले-तारीफ़ है जो कहीं नहीं मिलेगी सिवाय मेरे देश के - वो है ख़ुशी , हर हाल में भी खुश रहने की कला | हर दुःख दर्द में भी दीदी जब कलर्स चैनल पर अपनी पसंदीदा शो देखती हैं तो उनकी ख़ुशी देखते बनती है |
मेरी ससुराल एक टिपिकल गाँव में है | अच्छा है, भारत दर्शन सही रूप से करती हूँ , बिना किसी मिलावट के |
दीदी सीरियल के किसी बात पर ठहाके लगाती हैं की दरवाज़े पर आवाज़ होती है - "कहाँ मर गयी.... रोटी.."
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2 comments:
बहुत सुन्दर संस्मरण. कहते हैं लेखक जब कहानी लिखता है तो उसमें आत्मकथा लिखने लगता है और जब आत्मकथा लिखता है तो कहानी.
प्रवाहमय संस्मरण, बहुत बहुत आभार.
वंदे मातरम.
आपकी शैली कमाल की है...पाठक संस्मरण के साथ बहता चला जाता है और जो आप लिख रही हैं उसे पढ़ते हुए वो सामने घटते भी देखता है...ये लेखन की सफलता है...आप इसमें सिद्ध हस्त हैं...बधाई..संस्मरण के माध्यम से आपने आज नारी की स्तिथि और भारतीय ग्रामीण परिवेश को खूबसूरती से दर्शाया है.
नीरज
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