Tuesday, August 19, 2008

ईदगाह

ईदगाह
( मुशी प्रेमचंद की कहानी 'ईदगाह' पर आधारित )


हामिद था एक अच्छा बेटा अपनी माँ का प्यारा ,
बूढी आमना की धुंधली आंखों का तारा ,
गाँव में जब मेला था पाक ईद के मौके पर ,
लगी हुई थी खालिदा , रोटी में चूल्हे चौके पर ,
पोता मेरा खाना खाकर मेले में फिर जायेगा ,
सब बच्चों के जैसे वो भी भर भर खुशियाँ पायेगा ,

होते जो पैसे मुझपे दे देती भर के हाथ ,
लेकिन बस ये तीन पैसे हैं दूँ जो तेरे साथ ,
पैसे वो लेकर के हामिद भागा भर के दम ,
तीन पैसे भी लगे उसको छह लाखों से कम,

सोचा उसने क्या लूँ में, अपने इतने पैसों में ,
लूँ मिठाई या खेल खिलौने , चुनना है ऐसों में ,
फिर देखा एक कोने में एक बन्दा था कुछ सिमटा ,
बेच रहा था चीख चीख कर वो लोहे का चिमटा...

याद गया हामिद को जब रात चूल्हा चलता है ,
बिन चिमटे के हर रोटी पर हाथ माँ का जलता है ,
छ: पैसे का था पर चिमटा सोचा कैसे लूँगा,
बोला भइया तीन का दे दे , ले के माँ को दूँगा ,

बच्चे की जो देखी सूरत बोला चिम्टेवाला ,
ले ले बेटा तीन में तू, जा ईद मनाले आला ,
लौट रहे थे जब घर को सब बच्चे मिल कर बोले ,
अपने सामानों की पुड़िया आओ अब हम खोलें ,

हँसें देख हामिद का चिमटा लेकिन हामिद बोला,
तुमपे तो सब कांच या मिटटी है, टूट पड़े जो डोला ,
मेरे लोहे का चिमटा है , मजबूती का नाम ,
रहे संग ये हरदम मेरे , मदद करे हर काम ,

आई दौडी माँ आँगन तक देखूं हामिद को मेरे ,
क्या खाया मेले में तूने, क्या भाया मन को तेरे ?

खाना खाकर निकला था माँ मैं भूख थी कुछ मुझको ,
पर मेले से एक चिमटा माँ , लाया हूँ मैं तुझको ,
अबकी जब रोटी सेकेगी, तू चिमटे के साथ ,
होगी मुझको बहुत खुशी की जले तेरे हाथ ,
माँ के आँसू रुक सके फिर , पंख लगे थे पाँव में,
आज फ़रिश्ता ईदगाह से आया था ख़ुद गाँव में !

हार की जीत

वतन की मिट्टी से हमने जो विरासत पाई है ,
वही कहानी और सीखें फिर याद किसी को आई हैं ,
कोशिश शुरू हुई है , उस शिक्षा को दोहराने की ,
गाने की , दर्शाने की, जीवन के एक अफ़साने की ,


हार की जीत
( सुदर्शन जी की कहानी 'हार की जीत' पर आधारित )

एक गाँव में रहता था एक पंडित बाबा भारती ,
नेक खुदा का बन्दा था वो सच्चाई उसे सराहती ,
था बस उसका एक प्यार , घोड़ा उसका सुलतान ,
वो ही उसकी ज़िन्दगी था, वो ही उसका मान,
आधी रोटी अपनी हरदम उसको देता था वो,
बैठ पीठ पर उसके खूब मज़े लेता था वो,

ऐसे ही दिन कट जाते , था किस्मत में कुछ और ,
एक दिन गुज़रा खड़क सिंह , डाकू था वो चोर,
पड़ी निगाह तो खुली रह गई देख सुलतान का रंग,
लगा सोचने कैसे ले लूँ इसको अपने संग ,
पुछा उसने बाबा से क्या बेचोगे ये तुम,
देखा बाबा ने उसको बोले हो जाओ गुम..

तब चली एक चाल चोर ने बदला अपना भेष ,
बन बैठा एक भिखमंगा वो करके उलझे केश,
जो देखा उसने बाबा को आते अपने घोड़े पे,
लगा कराहने करो मदद , रखे हाथ वो जोड़े पे ,
पूछा बाबा नेभाई क्या दर्द है तेरे पाँव में ,
कहा पहुंचना है बस जल्दी नजदीकी एक गाँव में ,

दिल था बाबा का कोमल बोले छोडूं आजा ,
बैठा चढ़ कर डाकू उसपर जैसे कोई राजा ,

दो पग भी चल पाये थे , बाबा को दिया धक्का उसने ,
घोडे की धर डोर स्वयं ही , अपना रुख किया पक्का उसने ,
समझ चुके थे बाबा अब तो डाकू की वह गन्दी घात,
लेकिन कहा उन्होंने हँसके कहना नहीं कभी ये बात,
साथ छूटा नहीं गम मुझे किंतु होगा कष्ठ बड़ा ,
करे कोई मदद दुखी की, हो जो कोई रस्ते में खड़ा ,
जानेंगे जो बन रोगी तुमने लूटा है अब ,
फिर करेगा मदद कोई भी भय में होंगे सब,

मुंह मोड़ कर अपना चल दिए अपने गाँव ,
एक साँस में पहुंचे घर तक, थके उनके पाँव,

क्या देखें ? फिर अपने घर में, था उनका सुलतान खड़ा,
डाकू पर भी उन बातों ने कर डाला था असर बड़ा ,

चूम चूम साथी को बोले चल अब खुशियाँ जोड़ेंगे,
दीन दुखी की मदद से अब लोग मुंह नहीं मोड़ेंगे !

परीक्षा

( मुशी प्रेमचंद की कहानी 'परीक्षा' पर आधारित )
जब सुजानगढ़ का दीवान उमर से थक चला था ,
सोचा की मैं स्वयं चुनूं , दीवान नया भला सा ,
हुई घोषणा , पूर्ण राज्य में होगा चुनाव दीवान का,
परिचय होगा, सब गुणियों के ,आन, बान और शान का,

हर कोने से आए सज्जन लेकर अपने रंग ,
सबका अपना अलग रवैया ,अपना अपना ढंग ,
कोई खेल में अव्वल था , कोई सुर में उस्ताद ,
कोई ज्ञान का सागर था कोई गुण से आबाद ,

मुश्किल यूँ था चुन ना उनमें ज्यों पर्वत से जीरा ,
बूढा जौहरी ढूंढ रहा था पर मोती में हीरा !

एक दिवस सब युवा जनों ने सोचा खेलें खेल ,
सम्भव हो जाए उसी से आकांक्षा से मेल,
हुई आरम्भ प्रतियोगिता फिर हार जीत के साए,
अंत में थक हार कर सब अपने घर को आए,

रस्ते में एक बूढा किसान बिनती करता था सबसे ,
गाड़ी उसकी एक दलदल में फंसी हुई थी कबसे ...
रुके कोई क्यों ऐसे पल में थके हुए थे सब ही ,
लगता था आराम मिले सो जायें बस अब ही,
बैठ गया वो बूढा पकड़े अपना सर हाथों में ,
ऐसे में देखा उसको एक लड़के ने बातों में ,
जाना जो उसकी मुश्किल बोला की मैं आता हूँ ,
लगी पाँव में चोट है मेरे साथी को लाता हूँ |

जब कोई आया , वो बोला हँसके तब ,
हम दोनों को ही मिल के करना पड़ेगा अब,
आधी रात गए वो लड़का उस बूढे के साथ ,
खींच रहा था गाड़ी उसकी कस के दोनों हाथ ,
भवन जो पहुँचा सोने को , बीती रात थी सारी,
सब सज्जन निकले थे सुन ने निर्णय की तैयारी..

दौड़ा पहुँचा जो कक्ष में निर्णय होना था तब ही ,
दिल को थामे बैठे लोग आशावादी थे सब ही,
चुना गया वो लड़का जो बैठा सबसे पीछे ,
करने लगे प्रश्न लोग , अपनी मुट्ठी भींचे ,

आया वो बूढा किसान तब, अरे वो ही दीवान है !
बोला उसने कठिन क्षणों में इंसा की पहचान है ...

जिस मानव ने औरों के दुःख को अपना जाना है ,
उसी वीर हृदय को हमें परिषद् में लाना है ,
चाहे कितने गुण हों किसी में , वृथा हैं सारे मान ,
करे जो दीन दुखी और मेहनत का सम्मान !