Thursday, July 23, 2009

अफसाना लिख रही हूँ - भारत गाथा -२

"चाची, एक और पूडी देना " घर में खाना परोसने का काम बुलबुल था ; बच्चे कभी पूडी कभी सब्जी कभी खीर की मांग किये जा रहे थे | इतनी ख़ुशी थी की हर बच्चा स्वतः ही खाना बड़ी इच्छा से और बड़ी मात्रा में स्नेह से खा रहा था | और इन सबसे दूर बुलबुल के बच्चे विडियो गेम्स जैसी तुच्छ काम में उलझे हुए थे |
"बेटा, खाना खा लो न " झुंझलाते हुए बुलबुल ने दूर से कहा |
"but I already ate mom ... I ate one whole poori ...." नज़र अपने गेम पर ही टिकाते हुए अंश बोला |
"गधा कहीं का , एक पूडी खा कर इतरा रहा है | "बुलबुल मन ही मन बुदबुदाई | "बच्चे दस दस यूं ही खा रहे हैं , पता नहीं मेरे बच्चों को सलीके से खाना कब आएगा | " कान्हा को पूडी देते हुए बुलबुल ने सोचा |
"बेटा एक नहीं मोर खाते हैं , देखो कान्हा कितना छोटा है तुमसे ,फिर भी वन से मोर खाता है , चलो रेस करते हैं , देखते हैं कौन ज्यादा खा सकता है , फिर उसको मैं प्राईज़ दूँगी, ठीक है?" झूठी आस खुद को जता रही थी बुलबुल की शायद अंश या अनुराग खा लें.... एक और पूडी .... पर वो क्यों खाने लगे ?

"ये सब तुम्हारी गलती है , जो तुम इन्हें अपने हाथों से खिलाती हो न , इन्हें अपने आप खाना आता ही नहीं है " तनुष बुलबुल की मनोस्थिति देख कर दूर से ही बोल पड़े |

"हाँ , सब मेरी ही गलती है | इनको खाना नहीं आता , सो मेरी गलती ... ठीक से पोट्टी सीट इस्तेमाल नहीं कर सकते सो भी मेरी गलती | बच्चे वहां पैदा किये हैं , अब यहाँ की जीवन चर्या सीखने में इन्हें थोडी दिक्कत तो आएगी , है नहीं क्या?" और जैसे बुलबुल की अभी बात ख़तम नहीं हुयी हो .... आवाज़ को ज़रा धीमे करते हुए उसने फिर से कहा --"और ज़रा सा तुम भी कभी कभार दर्शन दे दो तो एहसान हो जाए , यहाँ आते ही जैसे तुम्हारे तो पर लग जाते हैं ....बच्चों का सारा काम मुझ पर ही आ जाता है | एक तो इतनी गर्मी, उसपर से डेढ़ गज के घूंघट की बंदिश , तुम्हारी तो मौज है - निक्कर में घूमते रहते हो ....|'
"चाची , पूडी ... और थोडी खीर भी ..." आवाज़ आई | "हाँ बेटा अभी लायी, " बुलबुल भागी |

दोपहर में यहाँ थकी हारी दुनिया थोडी देर सो जाती है | बुलबुल ने भी आज ये निर्णय लिया की थोडा रेस्ट किया जाए |

अभी पलंग पर पाँव रखा ही था की अनुराग रोता हुआ आ धमका -
"mom, kanha does not play fair , he cheats.... I think he is very spoiled.... " अनुराग ने शिकायत की |

"पहली बात अनुराग की आप हिंदी में बात करो ...अरे , कोशिश तो करो बेटा ...और दूसरी बात की हर बात पर मम्मा के पास नहीं आते हैं , अपने आप हेंडल करते हैं | " अभी अनुराग को समझा ही रही थी की अंश दूसरी शिकायत लेकर आ गया -
"mom, khushboo said a bad word ...."

बुलबुल उन्नीसवीं बार अपने बच्चों की प्रॉब्लम सोल्व करने के लिए गयी |

ये हमारे 'अमरीकन' बच्चे जाने किस मिटटी से बने होते हैं - इतने सीधे होते हैं की कोई भी गधा बना जाए | इस बात का ज्ञान तब हुआ जब भारत के बच्चों से इनका डायरेक्ट पाला पड़ा | दरअसल, इनकी गलती नहीं है | अमरीका में हर बात पर इन्हें नियम पालना सिखाया जाता है | वहां का जीवन वहां के ट्रैफिक की तरह सधा हुआ है - सब गाडियाँ अपनी लेन में जाएँगी, कोई किसी के साथ दखल अंदाजी नहीं करेगी | पर शायद देश की पैदाइश इंसान को स्मार्ट बना देती है - स्ट्रीट स्मार्ट ! रोज़मर्रा की स्ट्रगल, अपना हक पाने के लिए उसका छीनना जैसे ज़रूरी हो जाता है | जीवन ही की तरह यहाँ ट्रैफिक का कोई भरोसा नहीं होता - कहीं से भी, कोई भी, कहीं भी, कभी भी मार जाए , कह नहीं सकते , अगर आपको इसी में चलना है तो खुद को बचाते हुए आगे बढ़ना है | यहाँ के बच्चे अब ये सीख गए हैं | मैं इन बच्चों में अपने बचपन की छवि देखती हूँ - अच्छा लगता है - मैंने भी जीवन ऐसे ही सीखा था पर जाने मेरे बच्चे ये कभी सीख पाएंगे या नहीं ....बुलबुल मन ही मन इन ख्यालों में उलझी हुयी थी की अंश फिर से कोई बात ले कर आ गया |

"मॉम, में टी वी देखते हें तो कान्हा अपना चेंनेल लगाते हें ...मेरे गारी भी ले लेते हें ... "अंश के मुंह से टूटी फूटी हिंदी बहुत अच्छी लग रही थी |
"बेटा गारी नहीं गाडी ..बोलो "गाडी".... "बुलबुल ने सुधारा|

"मॉम, तुम चलेंगे तो वो सुनेंगे, मेरे बात नहीं ... " अंश की आदत बन गयी थी अब हर बात माँ से करवाने की |
पर अब बुलबुल ने नया तरीका अपनाने की सोची |

"बेटा अगर आप अपने आप इसको सोल्व नहीं कर सकते तो मॉम आपको हेल्प नहीं करेगी .." ढीठ बन कर बुलबुल लेट गयी |

कुछ सोच कर अंश लौट गया , फिर कुछ ही देर में वापस आया पर बुलबुल के पास नहीं आया , बड़ी दीदी के पास |

"बरी माँ , कान्हा बेड़ वर्ड बोलते है , मेरे को कुत्ता बोलते हें | " मासूमियत से अंश ने कहा |

बिस्तर में पड़ी पड़ी ही बड़ी दीदी चिल्लायीं - "अबे कान्हा , कुत्ता काहे कहता है...... दूं कान के नीचे खींच के एक ... सारी हुशियारी निकल जायेगी ......कमीना कहीं का ..... " जाने अंश क्या समझा पर बिना कुछ कहे चला गया |

पांच मिनट बाद डरते सहमते हुए अंश फिर से बुलबुल के सिरहाने खडा था पर कुछ कहने से डर रहा था ...

"मॉम, कान्हा मेरे को मारते हें , ब्लड भी निकाल दिए हैं |देखो .... " आँखों में आँसू भर के अंश अपनी माँ को अपनी ज़ख्मी कलाई दिखा रहा था |

दिल में छलकते ममता के ज्वार को रोकते हुए बुलबुल ने कहा - "बेटा अगर आपको कोई मारता है, तो आप उसको डबल मारो पर अगर ऐसे रोते हुए मम्मा पास आओगे तो मम्मा आपको और मारेगी | समझे ?"

एक बार को अंश की आँखें बड़ी हुयीं - ऐसा उसे किसी टीचर ने नहीं कहा था , कभी भी | शायद शिक्षा गलत थी बुलबुल की, पर सामयिक थी .. और ज़रूरी भी ... अंश उठ कर वापस चला गया |

काफी समय तक बड़े कमरे से कोई आवाज़ सुनाई नहीं दी तो बुलबुल उठ कर देखने गयी की आखिर माजरा क्या है ? कान्हा ने फिर से परेशान तो नहीं किया .....

देखा तो दीवान पर कान्हा और अंश एक साथ लेटे हुए हैं और अंश अपना कार्टून नेटवर्क का प्रोग्राम देख रहा है | पता नहीं क्या हुआ पर अंश ने अपना अधिकार लेना सीख लिया था ... .....|

अगले दिन खाने की पंगत में अंश और अनुराग दोनों को ही बैठा देखा तो बहुत ख़ुशी हुई | साथ में आश्चर्य हुआ की धीरे धीरे सबके साथ ये खाना सीख रहे हैं , अपने आप !

अब हिंदी भी काफी सुधर गयी थी बच्चों की |

और ....अभी आये आये नहीं थे की जाने के दिन भी आ गए |

भाषा, जीवन, खान-पान , रहन -सहन, रिश्ते सब की यादें साथ लेकर वापस आये ये छोटे छोटे अमरीकन बच्चे |
सचमुच, इससे बेहतर कल्चरल इमर्सन प्रोग्राम बुलबुल को अपने बच्चों के लिए कहीं नहीं मिल सकता था |
कुछ हद तक वे स्ट्रीट स्मार्ट बन गए थे ..... शायद .........

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