Sunday, August 21, 2011

मौके की नजाकत

माँ कहती थी मौके की नजाकत देख के काम किया करो ..

यूँ लगता है जैसे की पिछले कुछ दिनों से 'नजाकत' से मेरा पाला कुछ ज्यादा ही पड़ रहा है | अब देखिये न - उस दिन मंदिर में माथा टेकने गए थे | मंदिर के प्रमुख ने कहा की मंदिर की रेनोवेशन के शुरू होने में कुछ ही दिन बाकी है , फिर बहुत समय तक ऑडिटोरियम में कोई ओयोजन नहीं हो पायेगा , अगर कुछ करना है तो इसी महीने कर लो | बड़ी तमन्ना थी की बे एरिया के कवियों का एक दरबार किया जाए | सो, मन मचल गया... | लेकिन महीने का एक ही दिन हॉल खाली था जिसके आने में सिर्फ दस दिन बाकी थे | कैसे होगा इतनी जल्दी सब ? हो पायेगा की नहीं ? कवियों की लिस्ट बनाना, उनसे कन्फर्म करना | टिकट बेचना , स्टेज देकोराशन, बाप रे बाप इतना सारा काम ! बस दस दिन ! और फिर ऑफिस का काम भी जैसे सर पर फाँसी के फंदे की तरह लटक रहा था | नहीं हो पायेगा... मना कर दूं? किसी हाल में नहीं हो पायेगा... मना कर दूं? .. क्या फायदा ... हँसी उड़ेगी ...
"मौके की नजाकत ".... शायद इसे ही कहता हैं .....
मना करना कितना आसन है न .... सॉरी.... मैं नहीं कर सकती ... बस काम ख़तम !
पर मज़ा तो तब है जब खुद से कहा जाए ... ट्राई करने में क्या हर्ज़ है ..ज्यादा से ज्यादा कितना बुरा होगा...क्या बुरा होगा ... शायद कुछ अच्छा हो जाए... शायद...
"पर काफी लोग टिकट की वजह से नहीं आ पाते हैं ... क्या हम इसे फ्री कर लें?" मैंने पूछा |
"लेकिन मुफ्त चीज़ की लोग कदर नहीं करते... यूँ करते हैं , पांच डॉलर टिकट में खाना साथ कर देते हैं ... लोगों के पैसे वसूल हो जायेंगे... " प्रमुख बोले
"पर टिकट महंगा करेंगे तो कोई नहीं आएगा , पांच डॉलर से ज्यादा नहीं करेंगे.. ठीक है न ?" मैं जानती थी की मार्केट की मंदी का बहुत बुरा असर हो रहा है, ख़ास कर कवि सम्मलेन के टिकट की सेल में !
लोग हीरो हेरोइन को देखने के लिए पचास, सौ , हज़ार डॉलर तक देने के लिए तैयार रहते हैं ... पर अपने ही भाषा के बढ़ावे के लिए दो डॉलर भी बहुत महंगा जान पड़ता है|
हाय री हिंदी ! अब तेरा क्या बनेगा ?

दाम कम रखने हेतु इवेंट का कोई फ्लायेर नहीं छापा गया | टिकट भी नहीं छापे गए | जो आयेंगे उन्हें एंट्रेंस पर ही रीस्ट बेंड पहनाएंगे - प्लान किया गया |
मार्केटिंग के नाम पर सिर्फ एक डोक्युमेंट भेजा गया जगह जगह .. ईमेल गए, फेसबुक पर पोस्ट हुए |

दिन कम थे ... पर आशा बहुत ज्यादा | लोग ज़रूर आयेंगे ... ये मेरी आस नहीं ... मेरा विश्वास था ..

आते आते कवि दरबार का दिन भी आ गया ... अभी तक सोलह कवि कवयत्री कन्फर्म कर चुके थे |
लगा कम से कम ये सोलह तो ज़रूर आयेंगे और एक आध भाई बंधुओं को भी लेकर ही आयेंगे |

लगा.... अगर सौ लोग भी हो गए तो कोई मलाल नहीं रहेगा |

पांच बजे की शुरुआत थी ... मैं तीन बजे ही आकर सब काम कम्प्लीट करने की कोशिश कर रही थी |

कुर्सियां लग गयीं ... स्टेज सज गया .... मायिक जम गया ... अब बस लोग आने बाकी थे |

सोचा मैंने माता के दर्शन कर आऊँ........ मंदिर में कार्यक्रम होने का एक फायदा ये होता है की माता के दर्शन हो जाते हैं |

तो मैं चल दी मुख्य मंदिर की और... देखा बड़ी भीड़ जमी हुयी थी .... पूछा मैंने की क्या हो रहा है?

आज़ादी दिवस के उपलक्ष्य में एक बड़ी सी मंडली का कार्यक्रम होने वाला था ..... जिसमे बच्चे नृत्य, गायन, वादन इत्यादि करने वाले थे |
लेकिन मंदिर के जिस भाग में उनका प्रोग्राम होना था , वो जगह थोड़ी छोटी थी और तो और वहां पर हो रहा पूर्व कार्यक्रम समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था |
लोग बड़े परेशान हो रहे थे .... कब उनके बच्चे का अयिटेम हो वो और वो वहां से खिसकें ...

मैंने सोचा यही शायद विडम्बना है ... कहीं जगह ही जगह है - और लोग नहीं आ रहे ... और कहीं लोग ही लोग हैं -और जगह नहीं मिल रही...

मैंने जल्दी ही वहां से निकल पड़ी सोच कर की कहीं लोग न आ जाएँ और मैं इवेंट में न मिलूँ... अच्छा नहीं लगता ...

मैं दौड़ के वापस हॉल में पहुँच गयी... देखा की इतने बड़े हॉल में बस छः लोग बैठे हैं ... छः कवयात्रियाँ मात्र....

घडी के हिसाब से छह बज गए थे ..... और इतने बड़े हाल में दिख रहे थे ... बस छह .......

"मौके की नजाकत " कभी कभी बहुत दुःख देती है... डरा ही देती है जैसे ....
आँखों में आंसू आ गए... मैं हार गयी .... इतना बड़ा रिस्क नहीं लेना चाहिए था | स्टुपिड हूँ मैं ... क्या करूं? कैंसल कर दूं? पर अब क्या फायदा ?

जाने क्या हुआ... माता रानी की कृपा हुयी...
मैं मंदिर की परिसर की और भागी... देखा जिस मंडली को बच्चों का कार्य क्रम करना था वह अब भी अपनी सुनिश्चित जगह का इंतजार कर रहा था |

पता किया मैंने की उनके ग्रुप का करता धर्ता कौन है ? उस भद्र महिला से मिल कर उन्हें सुझाव दिया की क्यूँ न हम इन दोनों प्रोग्राम को एक साथ कर लें?

अपने कार्यक्रम की देरी के कारण वे पहले ही बहुत परेशान थीं.. पर थीं वे समझदार ... खुद निर्णय करने से पूर्व उन्होंने सभा में उपस्थित सभी लोगों से सलाह करी |

कुछ बात चीत के बाद ये बात पक्की हो गयी की दोनों कार्यक्रम एक साथ किया जाएगा |

वे सब हमारे हॉल में आ गए ... हमारा बड़ा सा हॉल भर गया .... चहल पहल ... घुंघरूओं की थाप , गीतों के सुर गूज उठे ...

उस कार्य क्रम की निर्धारित एंकर मेरी एक दोस्त ही निकली ... बस फिर क्या था | एक से भले दो! हम दोनों ने मिलकर सारे कार्यक्रम को ऐसे बांटा की पता ही नहीं चला कब चार घंटे बीत गए |
बच्चों के दो गीत/ नृत्य होते , तत्पश्चात दो कवि या कवयात्रियों को बुलाया जाता ....

हाँ , कुछ कुछ अच्छा हुआ तो कुछ कुछ बहुत अच्छा नहीं भी हुआ |

चूंकि दो कार्यक्रम साथ साथ चल रहे थे तो ज़ाहिर है वक़्त ज्यादा लगता है अपनी अपनी बारी आने में |

बहुत से कवयात्रियाँ एक निर्धारित समय लेकर आयीं थी .... देर होने के कारण वे अपनी कविता का पाठ नहीं कर पायीं |
[अब तक दस कवि - कवयत्री और आ गए थे तो कुल मिला कर करीं सोलह कवि हो गए थे |]
बहुत से बच्चे और उनके माता पिता देरी के कारण परेशान हो रहे थे |

हाँ , सब कुछ अच्छा अच्छा नहीं हो सकता.... पर हम प्रयास कर सकते हैं ... की सब अच्छा हो जाए ...

मुझे बहुत ख़ुशी है की आज ऐसे कई कवि कवयात्रियों को मौका मिला जिन्हें आज तक अपनी कविता कहने का कभी मौका नहीं मिला था | और उन्हें कई लोगों ने सुना ... सराहा... मेरा प्रयास सफल हुआ ...

छोटे छोटे बच्चों को एक स्टेज मिला.. एक छोटे से जगह के स्थान पर उन्हें एक सही मंच मिला, जिसका मुझे बहुत हर्ष है ! चिर काल तक वे अपनी मेहनत- अपने पर्फोर्मांस को रेकॉर्डिंग के ज़रिये एक उचित स्थान पर देखेंगे... बहुत ही अच्छा हुआ !

हाँ , लोगों को थोड़ी असुविधा हुई होगी... कुछ लोग कविता पाठ नहीं कर पाए... देर हो गयी ..
कुछ बच्चों के माता पिता परेशान जान पड़ रहे थे .. देर हो गयी...

मैं क्षमा प्रार्थी हूँ ...

चलिए, अगली बार कवि दरबार नहीं , कवि गोष्ठी करेंगे... जिसमे हमें हॉल भरने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी |

पर आज बहुत मज़ा आया....
जहाँ एक और हमने तीन साल की बिटिया अंजू का "जय हो" पर नाच देखा वहीँ दूसरी ओर पिच्यासी वर्ष के "विमल" जी की कविता सुनी जिन्हें बुन्देल खंड में राम लला सम्मान से नवाजा गया है |
आज वास्तव में संगम हो गया ....

माता रानी आज मैं तुमको मान गयी ... और हाँ बहुत बहुत धन्यवाद |

हे प्रभु ! यूँ तो मैंने कई काव्य गोष्ठियां, कवि सम्मलेन देखें हैं पर आज का अनुभव बहुत अनूठा था !

माँ सही कहती है मौके की नजाकत के साथ ...

1 comment:

Vivek said...

झूट नहीं कहूँगा, प्रयास अच्छा था
सब कवियों का मन सच्चा था

पर जो सब ही जगह मिलता है, उसकी कीमत नहीं होती
केवल भावना भर से कविता नहीं होती

मिश्रण करें जब भाषा का, मन है जिस ओर
तब बनती है कविता जिस पर लोग बोलें ONCE MORE

अपनी कही बातों के लिए माफ़ी नहीं मांगूंगा
कल कुछ तो बहुत अच्छे थे, बाकियों के लिए एक मंच था
दिक्कत बस एक थी, कि मंच बहुत तंग था
और बच्चों के माँ बाप का ध्यान कुछ भंग था